भारत की EV क्रांति: अब 2 से 20 मिलियन की ओर

भारत की EV क्रांति: अब 2 से 20 मिलियन की ओर

भारत की EV क्रांति: अब 2 से 20 मिलियन की ओर
भारत ने 2 मिलियन इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री का आंकड़ा पार कर लिया है और अब लक्ष्य है 2035 तक 20 मिलियन EVs तक पहुँचना। यह यात्रा न केवल पर्यावरण की रक्षा करेगी, बल्कि करोड़ों लोगों को रोज़गार और आत्मनिर्भरता भी देगी।

 

भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) की यात्रा अब गति पकड़ चुकी है। आज हम उस मुकाम पर हैं जहां पिछले वर्ष 20 लाख (2 मिलियन) इलेक्ट्रिक वाहन बिके। लेकिन लक्ष्य इससे कहीं बड़ा है—2035 तक 2 करोड़ (20 मिलियन) ईवी का। यह यात्रा सिर्फ एक आंकड़ा नहीं, बल्कि एक नई सोच, तकनीक, और समाज में बदलाव की कहानी है। स्विच मोबिलिटी के ग्लोबल सीईओ महेश बाबू का कहना हैं, “भारत की ईवी क्रांति सिर्फ साफ हवा की नहीं, यह आम लोगों की जिंदगी बदलने वाली क्रांति है।”

EV की शुरुआत: संदेह से विश्वास तक

महेश बाबू बताते हैं कि उन्होंने 2015 में ईवी  सेक्टर में कदम रखा। तब भारत में ईवी को लेकर कई सवाल थे—क्या बैटरी चलेगी? चार्जिंग कहां होगी? तकनीक टिकेगी या नहीं? लेकिन अब 9 साल बाद, वह गाड़ियाँ जो 2015 में बिकी थीं, आज भी बिना परेशानी के चल रही हैं। पहले 10 लाख EV बेचने में नौ साल लगे, लेकिन अगली 10 लाख गाड़ियाँ सिर्फ दो साल में बिक गए। इसका कारण है सरकार की नीतियाँ, उद्योग की भागीदारी और उपभोक्ताओं का बढ़ता विश्वास।

भारत को EV क्यों चाहिए?

भारत एक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और जैसे-जैसे GDP बढ़ती है, वैसी ही ज़रूरत होती है मोबिलिटी की। लेकिन हमारे देश में कारों की प्रति व्यक्ति संख्या अभी भी काफी कम है। भारत ने जिम्मेदार देश की तरह यह तय किया है कि वह विकास की राह पर टिकाऊ (sustainable) तरीके से चलेगा। इसलिए सौर ऊर्जा और नवीकरणीय ऊर्जा में भारी निवेश हो रहा है और EV उसका एक बड़ा हिस्सा है। भारत ने 2070 तक नेट ज़ीरो का वादा किया है, और EV इसमें अहम भूमिका निभाते हैं।

2030 का लक्ष्य: 30% नए वाहन EV हों

सरकार ने 2030 तक 30% नए वाहनों को ईवी बनाने का लक्ष्य रखा है। हालांकि शुरुआत में उद्योग और उपभोक्ता दोनों ने इस पर सवाल उठाए, लेकिन तीन-पहिया वाहनों के क्षेत्र में यह लक्ष्य पहले ही पूरा हो चुका है। महेश बाबू के अनुसार, जब उन्होंने महिंद्रा में काम करते हुए पहली बार लिथियम-आयन बैटरी वाला ई-रिक्शा पेश किया, तो लोग बोले—“तीन-पहिया चलाने वाला ड्राइवर तकनीक कैसे समझेगा?” लेकिन उन्होंने जवाब दिया, “उसे तकनीक नहीं, कमाई चाहिए।” और यही हुआ—ई-रिक्शा चलाने वाले ड्राइवर को हर महीने डीज़ल की तुलना में ₹6000 ज़्यादा कमाई होने लगी।

महिलाओं के लिए बना नया रास्ता

ई-रिक्शा जैसे वाहनों में तकनीकी जटिलता नहीं है—ना गियर, ना पेट्रोल पंप की लाइन—और इन्हें घर पर चार्ज किया जा सकता है। इसका फायदा यह हुआ कि कई महिलाएं अब ड्राइवर बन गईं। पहले जो घरेलू काम में थीं, अब सरकारी योजना के तहत वाहन लेकर स्वतंत्र रूप से रोज़गार कर रही हैं और ₹15,000–₹20,000 प्रति माह कमा रही हैं। ईवी  क्रांति ने न सिर्फ पर्यावरण को सुधारा, बल्कि समाज के कमजोर तबकों को आत्मनिर्भर बनाया।

चुनौतियाँ और अवसर: 2 से 20 मिलियन तक की राह

ईवी  को अपनाने की राह आसान नहीं है। कई चुनौतियाँ हैं—उत्पादन लागत, चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर, फाइनेंसिंग, और लोकल मैन्युफैक्चरिंग। लेकिन महेश बाबू मानते हैं कि हर चुनौती अपने साथ एक अवसर लेकर आती है। भारत में युवा इनोवेटर्स नए बिजनेस मॉडल, बैटरी समाधान और चार्जिंग टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे हैं। कुछ लोग वाहन खरीदना नहीं चाहते—वे सिर्फ प्रति किलोमीटर भुगतान कर चलाना चाहते हैं, जैसे Uber और Ola का मॉडल।

भारत को चाहिए अपना इनोवेशन

महेश बाबू कहते हैं कि भारत को सिर्फ "Make in India" नहीं, बल्कि "Innovate in India" की ओर बढ़ना होगा। हम सॉफ्टवेयर में दुनिया के अग्रणी हैं—ईवी  भी अब “सॉफ्टवेयर ऑन व्हील्स” बन चुके हैं। अगर हम तकनीक को उत्पाद से जोड़ पाएं, तो भारत न केवल खुद के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए ईवी तैयार कर सकता है। लेकिन हर नई तकनीक तभी सफल होगी जब वह ग्राहकों को "Total Cost of Ownership" में फायदा दे—यानि लंबे समय में सस्ती पड़े।

चार्जिंग, मैन्युफैक्चरिंग और स्किल डेवेलपमेंट

चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर पर बहुत बातें होती हैं, लेकिन ज़मीन पर काम कम है। महेश बाबू का अनुभव है कि आज भारत में 400–500 किमी रेंज वाली EV उपलब्ध हैं, जिन्हें होटल पार्किंग जैसी जगहों पर चार्ज किया जा सकता है। सरकार ने पब्लिक-प्राइवेट मॉडल से इस क्षेत्र में निवेश का रास्ता खोला है। वहीं, मैन्युफैक्चरिंग और सप्लाई चेन में आत्मनिर्भरता जरूरी है, ताकि हम वैश्विक चुनौतियों से सुरक्षित रहें।

अपस्किलिंग यानी कर्मचारियों को नई तकनीक के अनुसार प्रशिक्षित करना भी बेहद ज़रूरी है। महेश बाबू कहते हैं, “अपस्किलिंग सिर्फ मज़दूरों की नहीं, CEOs की भी ज़रूरत है।” इसके लिए इंडस्ट्री–अकादमी–सरकार को मिलकर एक स्ट्रक्चर्ड ट्रेनिंग सिस्टम बनाना चाहिए।

साझा सोच, साझा जिम्मेदारी

2035 तक 20 मिलियन EV का लक्ष्य सिर्फ सरकार या उद्योग से पूरा नहीं होगा। इसके लिए सभी हितधारकों—सरकार, कंपनियाँ, स्टार्टअप्स, और आम जनता—को मिलकर काम करना होगा। भारत की ताकत उसकी विविधता है—हमारे यहाँ दो-पहिया, तीन-पहिया, बस, मेट्रो—हर प्रकार की मोबिलिटी है। इन सबका विद्युतीकरण ही भारत को वैश्विक EV हब बना सकता है।

महेश बाबू का मानना है कि भारत को "दुनिया में EV में नंबर वन" बनने का बोझ नहीं उठाना चाहिए—नंबर दो भी काफी बड़ा स्थान है। अगर हम सभी तरह के EV—दो-पहिया, तीन-पहिया, बस, कार, और मेट्रो—को गिनें, तो भारत इस दशक में ही 10 मिलियन से ज़्यादा तक पहुँच सकता है। और यही मौका है, भारत को विश्व पटल पर EV इनोवेशन, मैन्युफैक्चरिंग और निर्यात में अग्रणी बनाने का।

निष्कर्ष:

भारत की ईवी  यात्रा सिर्फ एक तकनीकी बदलाव नहीं है, बल्कि यह लाखों लोगों के जीवन में बदलाव लाने वाला सामाजिक और आर्थिक आंदोलन है। अगर हम मिलकर काम करें, तो 2035 तक भारत 20 मिलियन EV के लक्ष्य को पार कर सकता है और इस सेक्टर में दुनिया की अगली बड़ी ताकत बन सकता है।

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